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SIR पर राजनीति चरम पर – बड़ी लड़ाई की वजह?

SIR पर क्यों हो रही पक्ष और विपक्ष के बीच जुबानी जंग? संसद की सियासी जंग का पूरा विश्लेषण

SIR पर क्यों हो रही पक्ष और विपक्ष के बीच जुबानी जंग? संसद की सियासत का पूरा पोस्टमॉर्टम

By Aam Charcha Bureau | Updated: दिसंबर 2025 | विश्लेषण

संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होते ही एक संक्षिप्त-सा शब्द पूरे राजनीतिक माहौल पर हावी हो गया है – SIR। चुनावी रोल के Special Intensive Revision को लेकर सरकार और विपक्ष ऐसे आमने-सामने हैं कि पूरा सत्र पटरी से उतरने की कगार पर दिख रहा है।

संक्षेप में: SIR यानी Special Intensive Revision of Electoral Rolls – मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण। विपक्ष का आरोप – यह प्रक्रिया जल्दबाज़ी, पक्षपात और दबाव से भरी है, जिससे वोटर लिस्ट से बड़ी संख्या में नाम गायब हो रहे हैं और BLO पर अत्यधिक दबाव है। सरकार और चुनाव आयोग का दावा – यह लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए जरूरी सफाई अभियान है।

1. SIR है क्या, जिस पर इतना बवाल मच रहा है?

सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि SIR कोई साधारण सरकारी संक्षिप्त नाम नहीं, बल्कि देश की चुनावी प्रक्रिया से जुड़ा एक अहम प्रशासनिक कदम है। SIR (Special Intensive Revision of Electoral Rolls) का मतलब है – मतदाता सूची का ऐसा विशेष पुनरीक्षण, जिसमें बड़े पैमाने पर घर-घर जाकर नामों की पुष्टि, नए मतदाताओं के पंजीकरण, मृत या स्थानांतरित वोटरों के नाम हटाने और डुप्लीकेट एंट्री खत्म करने की कोशिश की जाती है।

आम भाषा में कहें तो यह चुनाव आयोग का ऐसा “फुल बॉडी चेकअप” है, जिसमें वोटर लिस्ट को अपडेट कर लोकतंत्र की रीढ़ मानी जाने वाली मतदाता सूची को साफ-सुथरा बनाने की कवायद की जाती है। कागज पर यह पहल तकनीकी और प्रशासनिक दिखती है, लेकिन जब इसे जमीन पर लागू किया जाता है, तो यह सीधे-सीधे राजनीति के दिल में पहुंच जाती है।

1.1. SIR की आधिकारिक ज़रूरत क्या बताई जा रही है?

  • पुरानी मतदाता सूची में डुप्लीकेट नाम, मृत मतदाता या स्थानांतरित मतदाताओं के नाम होने की शिकायतें।
  • नई पीढ़ी – खासकर 18–19 साल के युवाओं को समय पर वोटर लिस्ट में जोड़ने की आवश्यकता।
  • शहरी क्षेत्रों में लगातार माइग्रेशन की वजह से पतों और क्षेत्रों में व्यापक बदलाव।
  • चुनावी पारदर्शिता और “फ्री एंड फेयर इलेक्शन” की वैश्विक छवि को मजबूत करने का दावा।

चुनाव आयोग के मुताबिक SIR का उद्देश्य चुनावी प्रक्रिया को और अधिक पारदर्शी बनाना है। लेकिन यहीं से राजनीतिक कहानी शुरू होती है – क्योंकि मतदाता सूची में किसी नाम का जुड़ना या कटना, सीधे-सीधे भविष्य के चुनावी नतीजों से जुड़ जाता है।

2. संसद में तकरार की शुरुआत: पहले दिन से ही SIR ने रोका सदन का काम

शीतकालीन सत्र के पहले ही दिन सरकार का एजेंडा कुछ और था – अलग-अलग विधेयक, आर्थिक मुद्दे और अन्य सरकारी कामकाज। लेकिन जैसे ही विपक्षी सांसदों ने SIR पर चर्चा की मांग उठाई, माहौल बदल गया। नारेबाज़ी, पोस्टर, प्लेकार्ड और हंगामे के बीच दोनों सदनों की कार्यवाही बार-बार स्थगित करनी पड़ी और दिन का अधिकांश समय बहस की जगह शोर-शराबे में ही निकल गया।

विपक्ष का स्पष्ट रुख था कि – पहले SIR पर विस्तृत चर्चा, उसके बाद ही बाकी कामकाज। सरकार की ओर से संदेश आया – SIR पर चर्चा से परहेज़ नहीं, लेकिन यह चुनावी सुधारों जैसे व्यापक विषय के तहत हो सकती है, सिर्फ एक प्रशासनिक आदेश पर सदन को “हाईजैक” नहीं किया जा सकता।

विपक्ष का सवाल – अगर SIR इतना पारदर्शी और जरूरी कदम है तो संसद में खुलकर बहस से डर क्यों? सरकार का जवाब – SIR चुनाव आयोग का डोमेन है, संसद का नहीं; हम सुधारों पर चर्चा को तैयार हैं, लेकिन राजनीतिक तमाशे के लिए नहीं।

3. विपक्ष इतना आक्रामक क्यों? SIR पर उनके मुख्य आरोप

विपक्ष के लिए SIR महज तकनीकी प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन चुका है। उनके आरोप कई स्तरों पर फैले हैं – प्रक्रिया की पारदर्शिता से लेकर BLO की मौत और मतदाता अधिकारों तक।

3.1. मतदाता सूची से “चुनिंदा” नाम गायब होने का आरोप

कई विपक्षी दलों ने सार्वजनिक तौर पर आरोप लगाया है कि SIR के नाम पर उन इलाकों में बड़े पैमाने पर नाम काटे जा रहे हैं, जहां पारंपरिक रूप से विपक्षी दलों को मजबूत समर्थन मिलता है। आरोप यह भी है कि:

  • कुछ राज्यों और शहरी इलाकों में अल्पसंख्यक, दलित, पिछड़े और गरीब मतदाताओं के नाम अनुपात से अधिक कटे।
  • दूरदराज या कामकाजी वर्ग के लोग – जो दिन में मजदूरी या नौकरी पर रहते हैं – घर पर न मिलने की स्थिति में आसानी से “अनवेरिफाइड” या “शिफ्टेड” मान लिए गए।
  • समीक्षा की समय सीमा इतनी कम रखी गई कि सही दस्तावेज जुटाना और आपत्तियाँ दर्ज करना आम लोगों के लिए मुश्किल हो गया।

विपक्ष इस पूरी प्रक्रिया को “प्रशासनिक नहीं, राजनीतिक” करार दे रहा है और दावा कर रहा है कि अगर SIR पूरी पारदर्शिता के साथ न रोकी गई या दुरुस्त न की गई, तो आने वाले चुनावों की विश्वसनीयता पर सवाल उठेंगे।

3.2. BLO पर दबाव और मौत के मामलों की गूंज

SIR के क्रियान्वयन में सबसे बड़ी जिम्मेदारी BLO (Booth Level Officer) की होती है – वही घर-घर जाकर फॉर्म भरते हैं, दस्तावेज चेक करते हैं और मोबाइल ऐप या कागज़ी फॉर्म के जरिए डेटा अपडेट करते हैं। विपक्ष का आरोप है कि:

  • BLO पर अवास्तविक टारगेट और समय-सीमा का भारी दबाव डाला गया।
  • कई जगहों से थकान, तनाव और दुर्घटनाओं के चलते BLO की मौत या गंभीर बीमार पड़ने की खबरें सामने आईं।
  • इन घटनाओं पर पर्याप्त मुआवज़ा, जांच या जवाबदेही नहीं दिखी, जिससे आक्रोश और बढ़ा।

विपक्ष इस मुद्दे को संसद के अंदर और बाहर मानवीय पहलू से भी उठा रहा है – सवाल यह है कि लोकतंत्र को “स्वच्छ” करने के नाम पर क्या हम उन कर्मचारियों की कीमत पर काम कर रहे हैं जो यही लोकतांत्रिक प्रक्रिया जमीन पर लागू करते हैं?

3.3. चुनाव आयोग की “स्वतंत्रता बनाम जवाबदेही” पर सवाल

SIR पर हंगामे के केंद्र में चुनाव आयोग भी है। विपक्ष का कहना है कि:

  • चुनाव आयोग ने SIR की घोषणा और समय-सारणी तय करते समय राजनीतिक और सामाजिक संवेदनशीलताओं का पर्याप्त ध्यान नहीं रखा।
  • मैदान से उठ रही शिकायतों पर न तो पारदर्शी समीक्षा हुई, न ही सार्वजनिक रिपोर्ट।
  • संसद में SIR पर चर्चा से बचने की कोशिश यह संदेश देती है कि सरकार और आयोग, दोनों जवाबदेही से कतराना चाहते हैं।

यही वजह है कि विपक्ष SIR को केवल प्रशासनिक मुद्दा नहीं, बल्कि “लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व” का सवाल बनाकर पेश कर रहा है।

4. सरकार का पक्ष: “साफ वोटर लिस्ट विरोधी दलों को क्यों चुभ रही है?”

सरकार की तरफ से जो मुख्य तर्क सामने आ रहे हैं, वे तीन बिंदुओं में समझे जा सकते हैं – तकनीकी प्रक्रिया, चुनाव आयोग की स्वायत्तता और विपक्ष की राजनीति

4.1. “यह तकनीकी प्रक्रिया है, राजनीतिक मुद्दा नहीं”

सरकार का पहला तर्क यह है कि SIR को एक तरह के प्रशासनिक और तकनीकी व्यायाम के रूप में देखा जाना चाहिए। उनके अनुसार:

  • मतदाता सूची की सफाई और अपडेट किसी भी लोकतंत्र में नियमित प्रक्रिया का हिस्सा है।
  • यह काम चुनाव आयोग द्वारा तय मानकों के तहत किया जा रहा है, न कि किसी राजनीतिक दल के निर्देश पर।
  • अगर कहीं गलती या शिकायत है तो उसके लिए निर्धारित फोरम – आपत्ति प्रक्रिया, रिविजन, कोर्ट – मौजूद हैं।

सरकार का संदेश साफ है – विपक्ष प्रशासनिक मुद्दे को “राजनीतिक नाटक” में बदल रहा है, ताकि संसद की कार्यवाही बाधित की जा सके।

4.2. “चुनाव आयोग स्वतंत्र है, संसद रोज़-रोज़ आदेशों पर बहस नहीं कर सकती”

सरकार का दूसरा बड़ा तर्क संस्थागत स्वायत्तता से जुड़ा है। सत्ता पक्ष के कई नेताओं का कहना है कि:

  • चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है, जिसका काम संसद के सीधे हस्तक्षेप से मुक्त रहना चाहिए।
  • अगर हर प्रशासनिक आदेश पर संसद में स्थगन प्रस्ताव और लंबी बहस हो, तो विधायी कामकाज ठप हो जाएगा।
  • संसद की भूमिका नीतिगत और विधायी है; तकनीकी कार्यान्वयन पर चर्चा के लिए स्थायी समिति या अन्य मंच हैं।

सरकार का यही रुख विपक्ष को “लोकतंत्र बनाम तानाशाही” की भाषा में पेश करने का मौका भी दे रहा है – क्योंकि जनता के बीच यह बहस सुर्खियों में बनी रहती है।

4.3. “विपक्ष को साफ-सुथरे चुनाव से डर है”

तीसरा तर्क अधिक राजनीतिक है। सत्ता पक्ष के कुछ नेताओं ने खुलकर कहा कि:

  • जिन दलों ने सालों तक “फर्जी वोटों” और “बोगस वोटर” के दम पर राजनीति की, उन्हें SIR जैसी प्रक्रिया से स्वाभाविक तौर पर दिक्कत होगी।
  • मतदाता सूची में डुप्लीकेट या संदिग्ध नामों के हटने से “साइलेंट वोटर” यानी वास्तविक मतदाता की ताकत बढ़ेगी।
  • अगर विपक्ष को SIR पर इतना भरोसा नहीं तो वह तथ्य और आंकड़ों के आधार पर अपनी बात चुनाव आयोग के सामने रखे, सड़क और संसद पर सिर्फ शोर-शराबे से बात नहीं बनेगी।

संक्षेप में, सरकार SIR को एक सकारात्मक सुधार और विपक्षी हंगामे को “राजनीतिक असुरक्षा” का नतीजा बताने की कोशिश कर रही है।

5. संसद के भीतर हंगामा, बाहर प्रदर्शन: दोहरे मोर्चे पर टकराव

SIR विवाद केवल संसद के भीतर नहीं, बल्कि उसके बाहर भी राजनीतिक नज़र का केंद्र बना हुआ है। विपक्षी गठबंधन के सांसदों ने संसद परिसर के बाहर भी नारेबाज़ी, मार्च और धरने के जरिए माहौल गरम रखा है। पोस्टर, “सेव वोटर राइट्स” जैसे स्लोगन और सोशल मीडिया कैंपेन के जरिए SIR को राष्ट्रीय बहस बना दिया गया है।

5.1. संसद के अंदर क्या हो रहा है?

  • सवाल-जवाब के दौरान SIR पर तत्काल चर्चा की मांग, जिस पर स्पीकर की कुर्सी और सरकार के साथ लगातार खींचतान।
  • बार-बार सदन की कार्यवाही स्थगित होने से विधायी कामकाज पीछे धकेला जा रहा है।
  • राज्यसभा में वॉकआउट, लोकसभा में नारेबाज़ी और “लोकतंत्र बचाओ – वोटर बचाओ” जैसे नारे।

5.2. संसद के बाहर की तस्वीर

संसद परिसर में मकर द्वार के पास विपक्षी दलों का संयुक्त प्रदर्शन इस बात का संकेत है कि SIR सिर्फ तकनीकी मसला नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रतीक बन चुका है। अलग-अलग राज्यों के नेता अपनी-अपनी क्षेत्रीय शिकायतों और उदाहरणों के साथ सामने आ रहे हैं – कहीं BLO की मौत, कहीं वोटर सूची से नाम गायब, तो कहीं बूथों की पुनर्संरचना का मुद्दा।

यह पूरा नैरेटिव मतदाताओं के मन में यह सवाल भी छोड़ रहा है कि – आखिर मेरे वोट की सुरक्षा की जिम्मेदारी किसकी है? सरकार की, चुनाव आयोग की या किसी और की?

6. SIR विवाद का लोकतंत्र पर असर: खतरों और संभावनाओं की पड़ताल

SIR को लेकर चल रही इस जुबानी जंग को अगर केवल “सरकार बनाम विपक्ष” के चश्मे से देखें तो तस्वीर अधूरी रह जाएगी। असल सवाल यह है कि इसका भारत के लोकतंत्र, चुनावी विश्वसनीयता और जनता के भरोसे पर क्या असर पड़ेगा?

6.1. मतदाता के मन में उठते सवाल

जब टीवी स्क्रीनों पर लगातार यह दिखता है कि SIR के नाम पर हज़ारों नाम कट गए, विपक्ष हंगामा कर रहा है, सरकार बचाव कर रही है – तो आम मतदाता के मन में स्वाभाविक तौर पर कुछ सवाल उठते हैं:

  • क्या मेरा नाम अब भी वोटर लिस्ट में है?
  • अगर गलती से नाम कट गया तो क्या मेरे पास सुधार का पर्याप्त समय और साधन हैं?
  • क्या यह प्रक्रिया वाकई निष्पक्ष है या किसी वर्ग/समुदाय को टारगेट किया जा रहा है?

लोकतंत्र की ताकत केवल इस बात में नहीं कि चुनाव समय पर हो रहे हैं, बल्कि इस बात में भी है कि हर योग्य नागरिक खुद को प्रतिनिधित्वित महसूस करे – SIR विवाद ने इसी बुनियादी भरोसे को केंद्र में ला दिया है।

6.2. चुनाव आयोग की विश्वसनीयता की परीक्षा

भारतीय चुनाव आयोग लंबे समय तक दुनिया के सबसे विश्वसनीय चुनावी संस्थानों में गिना जाता रहा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में लगातार उठते सवालों – EVM से लेकर नियुक्तियों तक – के बीच SIR विवाद ने उस पर और दबाव बढ़ा दिया है।

अगर आयोग समय पर, पारदर्शी और तथ्य आधारित तरीके से यह समझा नहीं पाया कि:

  • किन मानकों पर SIR किया जा रहा है,
  • कितने नाम जोड़े गए, कितने हटाए गए और क्यों,
  • आपत्तियों और शिकायतों पर क्या कार्रवाई हुई,

तो यह केवल विपक्ष की राजनीति नहीं, बल्कि आम नागरिक के बीच भी “इलेक्टोरल ट्रस्ट डेफिसिट” पैदा कर सकता है।

6.3. संसद की कार्यक्षमता पर चोट

SIR को लेकर चल रही यह रस्साकशी एक और गहरे सवाल को जन्म देती है – क्या हम धीरे-धीरे वहां पहुंच रहे हैं, जहां हर सत्र किसी न किसी विवाद के नाम पर “वॉशआउट” होने लगे? अगर ऐसा हुआ तो:

  • महत्वपूर्ण विधेयक और नीतियां समय पर पारित नहीं होंगी।
  • संसद का “विचार-विमर्श मंच” वाला चरित्र कमजोर होगा, केवल टकराव का मंच बच जाएगा।
  • जनता के बीच यह संदेश जाएगा कि चुने हुए प्रतिनिधि बहस से ज़्यादा हंगामा करने में विश्वास रखते हैं।

इस लिहाज से SIR विवाद सिर्फ मतदाता सूची का सवाल नहीं, बल्कि संसदीय संस्कृति की सेहत का भी आईना है।

7. समाधान क्या? संभावित रास्ते और ‘आम चर्चा’ का निष्कर्ष

अब सवाल यह है कि इस टकराव से बाहर निकलने का रास्ता क्या हो सकता है? क्या संसद हमेशा की तरह कुछ दिनों की हंगामेदार रस्मअदायगी के बाद सामान्य हो जाएगी, या इस बार SIR विवाद एक संरचनात्मक सुधार की दिशा में भी कुछ दरवाज़े खोलेगा?

7.1. पारदर्शिता और डेटा की खुली खिड़की

पहला और सबसे महत्वपूर्ण रास्ता है – पारदर्शिता। चुनाव आयोग और सरकार मिलकर:

  • राज्यवार और ज़िलावार डेटा सार्वजनिक कर सकते हैं – कितने नए वोटर जुड़े, कितने नाम हटे, कितने संशोधित हुए।
  • जिन जिलों में असामान्य रूप से ज्यादा कटौती हुई, वहां विशेष ऑडिट या जांच की घोषणा की जा सकती है।
  • BLO से लेकर आम मतदाता तक, सभी के लिए शिकायत निवारण के आसान और डिजिटल माध्यम स्पष्ट रूप से प्रचारित किए जा सकते हैं।

जब डेटा खुला होगा, तो बहस भी तथ्य-आधारित होगी – न कि सिर्फ आरोप और बचाव के स्तर पर।

7.2. संसद में संरचित बहस: “SIR बनाम चुनावी सुधार”

दूसरा रास्ता है – संरचित संसदीय बहस। सरकार और विपक्ष अगर सचमुच लोकतंत्र की चिंता करते हैं, तो वे कम से कम इन बातों पर सहमति बना सकते हैं:

  • SIR और व्यापक चुनावी सुधारों पर एक पूरे दिन की विशेष बहस हो।
  • बहस के बाद एक सर्वदलीय संसदीय समिति बनाई जाए, जो SIR की प्रक्रिया, शिकायतों और सुधारों पर 3–6 महीने में रिपोर्ट दे।
  • इस रिपोर्ट के आधार पर चुनावी कानूनों और नियमों में संशोधन पर विचार हो – ताकि अगली बार SIR हो, तो वह कम विवादित और ज्यादा भरोसेमंद हो।
  • साथ ही BLO के कामकाजी हालात, सुरक्षा, पारिश्रमिक और प्रशिक्षण पर भी स्पष्ट नीति बने।

ऐसा करने से न केवल मौजूदा गतिरोध टूटेगा, बल्कि भविष्य की चुनावी प्रक्रिया भी मजबूत होगी।

7.3. “आम वोटर” को केंद्र में रखना जरूरी

आखिर में सवाल वही – लोकतंत्र का असली नायक कौन? न सरकार, न विपक्ष; असली नायक है – वोटर। इसलिए SIR पर चल रही इस पूरी जंग में सबसे आगे रखी जाने वाली चीज़ पार्टी या सत्ता नहीं, बल्कि आम नागरिक का अधिकार होना चाहिए।

आम चर्चा का निष्कर्ष:
SIR पर संसद में हो रही जुबानी जंग यह दिखाती है कि भारत का लोकतंत्र अभी भी जिंदा है – सवाल पूछे जा रहे हैं, जवाब मांगे जा रहे हैं। लेकिन लोकतंत्र की असली परीक्षा वहीं होगी, जहां यह जंग शोर से आगे बढ़कर समाधान तक पहुंचे – जहां मतदाता सूची साफ भी हो, BLO सुरक्षित भी हों और हर नागरिक यह भरोसा रख सके कि उसका नाम, उसका वोट और उसकी आवाज़ इस व्यवस्था में सुरक्षित है।

फिलहाल तस्वीर यही है – SIR पर तकरार सिर्फ वोटर लिस्ट की नहीं, नैरेटिव की लड़ाई भी है। एक तरफ सरकार “शुद्धिकरण” की कहानी सुनाना चाहती है, दूसरी तरफ विपक्ष “भेदभाव और दबाव” की दास्तान सुना रहा है। सच शायद इन दोनों के बीच कहीं है – और उस तक पहुंचने के लिए सवाल भी जरूरी हैं और शांत, ठोस जवाब भी

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