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मतदाता सूची या वोट कटौती? यूपी में पुनरीक्षण पर राजनीति गरम।

कितने नाम कटे? आंकड़े, सच्चाई और राजनीतिक भ्रम

आम चर्चा 
 लखनऊ डेस्क।

उत्तर प्रदेश में मतदाता सूची पुनरीक्षण के दौरान “लाखों नाम कटने” का दावा एक राजनीतिक नारा बन गया। विपक्षी दलों ने बिना किसी आधिकारिक आंकड़े के बड़े पैमाने पर वोट कटौती का आरोप लगाया, जबकि प्रशासन ने इसे नियमित और कानूनी प्रक्रिया बताया।

Up sir rivision and politics 

समस्या यहीं से शुरू होती है—जब लोकतंत्र में आंकड़े सार्वजनिक न हों, तो संदेह स्वतः जन्म लेता है। चुनाव आयोग या राज्य प्रशासन द्वारा ज़िले-वार, वर्ग-वार या कारण-वार नाम कटौती का विस्तृत विवरण सामने नहीं रखा गया, जिससे राजनीतिक अविश्वास और गहरा गया।

लोकतंत्र में केवल निष्पक्ष होना पर्याप्त नहीं, बल्कि निष्पक्ष दिखना भी उतना ही आवश्यक है।

राजनीतिक बयानबाज़ी: प्रशासन बनाम विपक्ष

सत्ता पक्ष का तर्क स्पष्ट है—फर्जी मतदाता लोकतंत्र को कमजोर करते हैं। मुख्यमंत्री और भाजपा नेताओं ने कहा कि वर्षों से मतदान न करने वाले, स्थानांतरित या मृत मतदाताओं के नाम हटाना अनिवार्य था।

दूसरी ओर, विपक्ष ने इसे “संस्थागत वोट कटौती” करार दिया। समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और अन्य दलों ने आरोप लगाया कि जानबूझकर उन इलाकों को निशाना बनाया गया, जहाँ विपक्ष का जनाधार मजबूत है।

राजनीतिक दृष्टि से यह टकराव केवल प्रशासनिक प्रक्रिया का नहीं, बल्कि आगामी चुनावों की रणनीति का हिस्सा बन चुका है।

जाति, वर्ग और मतदाता सूची: यूपी की सामाजिक राजनीति

उत्तर प्रदेश की राजनीति सामाजिक समीकरणों पर आधारित है। यहाँ मतदाता सूची में किसी भी प्रकार का बदलाव सीधे-सीधे जातीय और वर्गीय संतुलन को प्रभावित करता है।

  • दलित और वंचित वर्ग – जिनकी दस्तावेज़ी स्थिति कमजोर
  • प्रवासी मजदूर – जो शहरों में रोजगार के कारण अनुपस्थित
  • अल्पसंख्यक समुदाय – जिन पर ऐतिहासिक रूप से प्रशासनिक अविश्वास का आरोप

जब इन समूहों से नाम कटने की शिकायतें आती हैं, तो मामला तकनीकी नहीं रह जाता—यह सामाजिक न्याय का प्रश्न बन जाता है।

ग्राउंड रिपोर्ट: आम मतदाता की आवाज़

ग्रामीण उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में मतदाताओं को यह तक जानकारी नहीं थी कि मतदाता सूची पुनरीक्षण चल रहा है। कई इलाकों में बूथ लेवल ऑफिसर (BLO) पहुँचे ही नहीं या सूचना स्पष्ट नहीं दी।

शहरी झुग्गी-बस्तियों और प्रवासी इलाकों में स्थिति और जटिल रही। किराए के मकान, अस्थायी पते और पहचान दस्तावेज़ों की कमी के कारण लोग प्रक्रिया से बाहर हो गए।

जिस लोकतंत्र में सबसे कमजोर मतदाता सबसे पहले बाहर हो जाए, वहाँ व्यवस्था पर सवाल उठना स्वाभाविक है।

डिजिटल इंडिया बनाम डिजिटल डिवाइड

सरकार ने ऑनलाइन पोर्टल, वोटर हेल्पलाइन ऐप और डिजिटल फॉर्म को समाधान बताया। लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि डिजिटल साक्षरता अब भी सीमित है।

ग्रामीण बुज़ुर्ग, कम पढ़े-लिखे नागरिक और गरीब तबके के लिए ऑनलाइन प्रक्रिया एक बाधा बन गई। डिजिटल समाधान तब तक लोकतांत्रिक नहीं हो सकता, जब तक वह सर्वसुलभ न हो।

चुनाव आयोग की संवैधानिक भूमिका और सीमाएँ

चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है, जिसकी निष्पक्षता पर लोकतंत्र टिका है। मतदाता सूची पुनरीक्षण उसका कानूनी दायित्व है।

लेकिन बदलते राजनीतिक माहौल में आयोग की भूमिका केवल तकनीकी न रहकर नैतिक भी हो जाती है। पारदर्शिता, संवाद और विश्वास निर्माण अब अनिवार्य हो चुके हैं।

2027 विधानसभा चुनाव: ट्रेलर या टर्निंग पॉइंट?

यह पूरा विवाद 2027 के विधानसभा चुनाव से अलग नहीं देखा जा सकता। विपक्ष इसे लोकतंत्र बचाने के अभियान के रूप में प्रस्तुत करेगा, जबकि सत्ता पक्ष इसे चुनाव सुधार की सफलता बताएगा।

मतदाता सूची का यह मुद्दा बूथ स्तर तक जाएगा और हर गांव-कस्बे में राजनीतिक बहस का विषय बनेगा।

क्या समाधान है?

  • पुनरीक्षण प्रक्रिया की ज़िला-वार पारदर्शिता
  • ऑफलाइन सहायता केंद्रों की मजबूती
  • विशेष अभियान: प्रवासी, बुज़ुर्ग और वंचित वर्ग के लिए
  • राजनीतिक दलों और चुनाव आयोग के बीच संवाद

 मतदाता सूची या लोकतंत्र की सूची?

मतदाता सूची पुनरीक्षण लोकतंत्र के लिए आवश्यक है, लेकिन संवेदनशीलता और पारदर्शिता के बिना यह प्रक्रिया अविश्वास को जन्म देती है।

उत्तर प्रदेश का यह अनुभव पूरे देश के लिए चेतावनी है—कि लोकतंत्र केवल मतदान का अधिकार नहीं, बल्कि उस अधिकार तक पहुँच की गारंटी भी है।

अगर मतदाता खुद को व्यवस्था से कटा हुआ महसूस करने लगे, तो लोकतंत्र खोखला हो जाता है।

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