राज्यसभा के मनोनीत सदस्य: प्रतिभा का प्रतिनिधित्व या वैचारिक विस्तार?
13 जुलाई 2025 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा राज्यसभा में चार नए सदस्यों की मनोनयन सूची जारी की गई। इन नामों में वकील उज्ज्वल निकम, सामाजिक कार्यकर्ता सी. सदानंदन मास्टर, पूर्व विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला और इतिहासकार मीनाक्षी जैन शामिल हैं। यह नामांकन संविधान के अनुच्छेद 80 के अंतर्गत हुआ, जो राज्यसभा में 12 मनोनीत सदस्यों का प्रावधान करता है।
संविधान की मूल भावना: विविधता का प्रतिनिधित्व
भारत के संविधान निर्माता राज्यसभा को केवल राजनीति तक सीमित नहीं देखना चाहते थे। इसलिए अनुच्छेद 80 में यह व्यवस्था की गई कि साहित्य, कला, विज्ञान और समाजसेवा जैसे क्षेत्रों से विशिष्ट व्यक्तित्वों को संसद का हिस्सा बनाया जाए। यह विचार भारतीय लोकतंत्र की बौद्धिक और सांस्कृतिक समावेशिता को प्रतिबिंबित करता है।
हालिया नियुक्तियाँ: प्रतीक या पक्ष?
हालिया नामांकन पर नजर डालें तो उज्ज्वल निकम, हर्षवर्धन श्रृंगला और मीनाक्षी जैन जैसे नाम एक खास वैचारिक पृष्ठभूमि की ओर संकेत करते हैं। उज्ज्वल निकम मुंबई हमलों से जुड़े मामलों में अभियोजक रहे हैं, श्रृंगला विदेश नीति में 'भारत पहले' दृष्टिकोण के रणनीतिक आधार रहे हैं, और मीनाक्षी जैन हिंदू सभ्यता के पक्ष में ऐतिहासिक पुनर्पाठ के लिए जानी जाती हैं।
क्या ये नामांकन सच्चे अर्थों में "गैर-राजनीतिक विशेषज्ञता" को दर्शाते हैं, या फिर एक राजनीतिक वैचारिकता को संवैधानिक माध्यम से प्रतिष्ठित करने का प्रयास हैं? यह प्रश्न स्वाभाविक है।
क्या संसद का ऊपरी सदन अब वैचारिक अखाड़ा बन रहा है?
यह कोई पहली बार नहीं है जब मनोनीत सदस्यों को लेकर विवाद या बहस हुई हो। पूर्व में भी लता मंगेशकर, कपिल देव, रेखा जैसे नामों के नामांकन हुए थे, लेकिन उनकी संसद में भागीदारी न्यूनतम रही। वहीं दूसरी ओर, राकेश सिन्हा जैसे सदस्य सदन में सक्रिय रहे, परन्तु वैचारिक प्रतिबद्धता भी स्पष्ट रही।
लोकतंत्र में विशेषज्ञता का स्थान
भारतीय लोकतंत्र की सुंदरता इस बात में है कि वह विविध दृष्टिकोणों और विशेषज्ञताओं को साथ लेकर चलता है। परंतु जब ये विशेषज्ञता किसी वैचारिक ढाँचे के भीतर सीमित हो जाए, तो चिंता का विषय बनती है। राज्यसभा का मनोनीत स्थान स्वतंत्र, समावेशी और संतुलित दृष्टिकोण का मंच होना चाहिए, न कि सत्ता की विचारधारा का विस्तार।
प्रतिनिधित्व बनाम संतुलन: तीन खाली सीटें क्या कहती हैं?
वर्तमान में राज्यसभा में तीन मनोनीत पद खाली हैं। क्या सरकार विज्ञान, आदिवासी साहित्य, ग्रामीण नवाचार या जलवायु परिवर्तन जैसे क्षेत्रों से भी नामों पर विचार करेगी? या फिर इन रिक्तियों का उपयोग भी वैचारिक संतुलन को मजबूत करने के लिए किया जाएगा?
एक नजर: वर्तमान मनोनीत सदस्य
- इलैयाराजा – संगीत
- पी. टी. उषा – खेल
- महेश जेठमलानी – कानून
- सोनल मानसिंह – नृत्य
- राम शकल – राजनीति
- राकेश सिन्हा – लेखन, विचार
- रंजन गोगोई – न्यायपालिका
- वेनेका हेगड़े – सामाजिक सेवा
यह सूची संतुलन दर्शाती है, लेकिन हालिया चार नामों से यह संतुलन पुनः समीक्षा योग्य हो गया है।
निष्कर्ष: क्या यह समय आत्मनिरीक्षण का है?
राज्यसभा का उद्देश्य राजनीतिक दलों से अलग हटकर राष्ट्र निर्माण में विशिष्ट योगदान देने वालों को आवाज़ देना था। यदि मनोनीत सदस्य भी दलगत राजनीति का विस्तार बन जाएँ, तो इस व्यवस्था का नैतिक आधार कमजोर पड़ सकता है।
यह लेख किसी एक विचारधारा के विरोध में नहीं है, बल्कि इस सवाल को उठाने का प्रयास है – क्या संसद के उच्च सदन में विविधता के नाम पर एकरूपता पनप रही है?
शायद यह समय है, जब भारत को फिर से उन आवाज़ों को बुलाना चाहिए, जो सत्ताओं के पार खड़े होकर राष्ट्र की आत्मा की बात करते हैं।
— आम चर्चा संपादकीय टीम

0 टिप्पणियाँ