बीजेपी अध्यक्ष पद को लेकर आरएसएस और बीजेपी के बीच तनाव: विचारधारा बनाम सत्ता की रणनीति
बीजेपी में राष्ट्रीय अध्यक्ष के चयन को लेकर उत्पन्न गतिरोध ने संगठन और वैचारिक मातृसंस्था आरएसएस के बीच गहरे मतभेदों को उजागर कर दिया है। यह मुद्दा विशेष रूप से 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद प्रमुखता से सामने आया, जब बीजेपी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और गठबंधन की मदद से सरकार बनी।
🔶 आरएसएस की भूमिका और अपेक्षाएँ
- आरएसएस चाहता है कि नया अध्यक्ष संगठनात्मक रूप से मजबूत और हिंदुत्व विचारधारा के प्रति निष्ठावान हो।
- आरएसएस बाहरी नेताओं की बढ़ती भूमिका से चिंतित है और कैडर आधारित नेतृत्व पर ज़ोर दे रहा है।
- टेक्नोक्रेट की बजाय वैचारिक तपस्या वाले नेता को प्राथमिकता देने की मांग सामने आई है।
🔶 बीजेपी आलाकमान की प्राथमिकताएँ
- मोदी-शाह जोड़ी ऐसा चेहरा चाहती है जो उनकी रणनीतियों के साथ सामंजस्य बैठा सके।
- केन्द्रीयकृत नेतृत्व शैली के साथ काम करने वाला अध्यक्ष बीजेपी नेतृत्व की पहली पसंद है।
🔶 नड्डा के बयान ने और बढ़ाया विवाद
जेपी नड्डा के उस बयान ने विवाद को हवा दी जिसमें उन्होंने कहा कि बीजेपी अब आरएसएस पर निर्भर नहीं है। इसके परिणामस्वरूप 2024 के चुनावों में आरएसएस प्रचारकों की सक्रियता घटती दिखी।
🔶 संभावित नामों की चर्चा
मीडिया रिपोर्ट्स और एक्स पोस्ट्स के अनुसार, जो नाम प्रमुखता से उभर कर आ रहे हैं वे हैं:
- संजय जोशी
- शिवराज सिंह चौहान
- वसुंधरा राजे
- योगी आदित्यनाथ (आरएसएस के करीबी)
- मराठी पृष्ठभूमि वाले नेता भी चर्चा में
🔶 हाल के घटनाक्रम
- जुलाई 2025: आरएसएस की अखिल भारतीय प्रांत प्रचारक बैठक में भी कोई सहमति नहीं बनी।
- मार्च 2025: पीएम मोदी का नागपुर आरएसएस मुख्यालय दौरा, तनाव घटाने की कोशिश।
- सरकार द्वारा आरएसएस की सदस्यता पर लगी रोक हटाई गई, जिसे सुलह का संकेत माना गया।
🔶 वर्तमान स्थिति
- जेपी नड्डा जून 2024 में कार्यकाल खत्म होने के बावजूद अब तक कार्यवाहक रूप में बने हुए हैं।
- बीजेपी ने कई राज्यों में संगठनात्मक चुनाव संपन्न किए हैं लेकिन राष्ट्रीय अध्यक्ष की नियुक्ति टाल दी गई है।
- अभी भी 19 राज्यों में चुनाव लंबित हैं।
🔶 संभावनाएं
बीजेपी और आरएसएस के बीच नेतृत्व चयन को लेकर टकराव वैचारिक प्रतिबद्धता बनाम राजनीतिक व्यावहारिकता की लड़ाई को दर्शाता है। यह टकराव केवल एक व्यक्ति के चयन का मामला नहीं है, बल्कि यह बीजेपी की दिशा, दृष्टि और संगठनात्मक स्वतंत्रता के भविष्य का निर्धारण करने वाला मुद्दा बन गया है।
आगामी राज्य चुनावों (महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड) में इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिल सकता है, खासकर यदि नए अध्यक्ष की नियुक्ति में और देरी होती है।
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