उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का इस्तीफा: सरकार से टकराव की पूरी कहानी
भारत के राजनीतिक इतिहास में उपराष्ट्रपति पद को आमतौर पर एक गरिमामयी और अपेक्षाकृत गैर-विवादास्पद माना जाता रहा है। लेकिन 2025 में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का अचानक इस्तीफा इस परंपरा से एक बड़ा विचलन था। यह इस्तीफा न केवल समय और प्रक्रिया की दृष्टि से असामान्य था, बल्कि इसके पीछे की घटनाएं और सरकार के साथ उनके संबंधों में खटास एक गंभीर राजनीतिक विमर्श का विषय बन गई।
मुख्य विवाद: जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव
धनखड़ और केंद्र सरकार के बीच विवाद की जड़ थी विपक्ष द्वारा लाया गया महाभियोग प्रस्ताव, जो दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ था।
सरकार चाहती थी कि यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से लाया जाए ताकि न्यायपालिका को जवाबदेही का स्पष्ट संदेश मिले। इसके लिए सत्ता पक्ष के सांसदों के हस्ताक्षर भी अपेक्षित थे। लेकिन उपराष्ट्रपति ने विपक्षी नेताओं से स्वतंत्र रूप से बातचीत कर प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, जिससे सरकार की योजना विफल हो गई।
विपक्ष के प्रति झुकाव और राजनीतिक संतुलन का अभाव
धनखड़ के कार्यकाल में उन्होंने कई बार विपक्षी नेताओं के साथ संवाद स्थापित किया और संसद में उनके विचारों का समर्थन भी किया। कई बार उन्होंने लोकतंत्र, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, और कार्यपालिका के अधिकारों पर प्रश्न उठाए जो अप्रत्यक्ष रूप से सरकार की आलोचना के रूप में देखे गए।
उनकी टिप्पणियाँ प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की नीतियों पर सीधी प्रतिक्रिया नहीं थीं, लेकिन संकेतात्मक रूप से असहमति को दर्शाती थीं।
संवैधानिक और संस्थागत टकराव की झलक
धनखड़ ने कॉलेजियम प्रणाली, न्यायिक सक्रियता और न्यायपालिका की सीमाओं पर कई बार टिप्पणी की, जिससे यह प्रतीत हुआ कि वे सरकार के सुर में बोल रहे हैं। लेकिन जस्टिस वर्मा महाभियोग प्रकरण में उनका उलट रुख एक आश्चर्य बन गया।
इस्तीफे की प्रक्रिया और असामान्यता
धनखड़ ने औपचारिक प्रेस कॉन्फ्रेंस या बयान के बिना ही राष्ट्रपति को सीलबंद पत्र भेजकर इस्तीफा दिया, जिसे तुरंत स्वीकार कर लिया गया।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएं:
- सरकार समर्थक वर्ग: इसे विश्वासघात मान रहा है।
- विपक्षी वर्ग: इसे “संवैधानिक साहस” की संज्ञा दे रहा है।
बीजेपी और आरएसएस का रुख
बीजेपी नेतृत्व इस घटनाक्रम से असहज है, जबकि कुछ संघ विचारकों ने उनके “संविधान-सम्मत” रुख को उचित ठहराया। यह बीजेपी और संघ के बीच विचार भिन्नता की ओर भी इशारा करता है।
इस घटनाक्रम के संभावित प्रभाव
- उपराष्ट्रपति पद की गरिमा और भूमिका पर नई बहस।
- संवैधानिक पदाधिकारियों की स्वतंत्रता बनाम सरकारी नियंत्रण का प्रश्न।
- विपक्ष को एक नैरेटिव सेट करने का मौका।
- नई नियुक्ति को लेकर संवेदनशील राजनीतिक और वैचारिक निर्णय।
निष्कर्ष: व्यक्ति बनाम प्रणाली का टकराव
धनखड़ का इस्तीफा केवल एक व्यक्ति की प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि एक संस्थागत टकराव का प्रतीक है। यह घटना इस प्रश्न को जन्म देती है कि क्या संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति केवल सरकार की नीति के अनुरूप चलें या अपने विवेक और संविधान की रक्षा में स्वतंत्र भूमिका निभाएं?

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